नियमन हमारे जीवन को हमारे सोच से अधिक प्रभावित करते हैं। हम नाश्ते पर जो कॉफी पीते हैं, बाहर जाने के लिए ई-प्लेटफॉर्म से टैक्सी मंगाते हैं, उस सफर के लिए ई-भुगतान करते हैं, दवाइयां तथा पोषक उत्पाद मंगाते हैं तो ये सभी गतिविधियां विनियमित बाजार में घटित होती हैं। इनमें से हर क्षेत्र का प्रदर्शन और मजबूती एक या अधिक नियामकों की क्षमता पर निर्भर करती है।

आज केंद्र स्तर पर 20 से अधिक सांविधिक नियामकीय प्राधिकरण (एसआरए) हैं जो वित्त, दूरसंचार, बिजली, पानी, खाद्य सुरक्षा, प्रतिस्पर्धा, वेयरहाउसिंग, हवाई अड्‌डे, बड़े बंदरगाह, ऋणशोधन, चिकित्सा पेशेवर, दंत चिकित्सक, नर्स, अंकेक्षक और मूल्यांकन क्षेत्रों से संबद्ध हैं। कई एसआरए राज्य स्तर पर काम करते हैं। समग्र रूप से देखें तो ये सीधे तौर पर देश के सकल घरेलू उत्पाद के 75 फीसदी का नियमन करते हैं। इनका प्रदर्शन या प्रदर्शन की कमी अब भारत की विकास परियोजना के लिए रणनीतिक महत्त्व रखती है।

कई मायनों में नियमन ने उपभोक्ताओं और समाज के लिए अच्छे नतीजे दिए हैं। अधिकांश नियामक विनियमित संस्थाओं द्वारा प्रदान की जा रही वस्तुओं और सेवाओं में एक खास स्तर की सुरक्षा और गुणवत्ता बरकरार रखने में सफल रहे हैं। बहरहाल इन सफलताओं के साथ कई दिक्कतें भी सामने आईं। विशेष नियामकों की स्थापना के बाद के शुरुआती आशावाद की जगह उनके काम से जुड़ी चिंताओं ने ले ली। चिंताओं को विधि के शासन, प्रतिस्पर्धा, उपभोक्ता संरक्षण तथा आर्थिक गतिशीलता में बांटा जा सकता है। कई लोग किसी जटिल संस्थान के काम को वहां शीर्ष पर मौजूद व्यक्ति के साथ जोड़कर देखते हैं। वे इस बात पर जोर देते हैं कि बेहतर प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ लोगों का चयन किया जाए। नियुक्ति के निर्णय भी मायने रखते हैं। शीर्ष पर मौजूद व्यक्ति का चरित्र टीम के कौशल, रणनीति, नैतिक बल आदि पर भी गहरा असर डालता है। परंतु संगठनों के बेहतर प्रदर्शन को केवल बेहतरीन लोगों की बदौलत नहीं हासिल किया जा सकता है। संगठनात्मक प्रदर्शन को संगठन का डिजाइन आकार देता है जो संतुलन कायम करने का काम करता है। नियामक एक असामान्य सार्वजनिक संगठन होता है क्योंकि वह विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामों का मिश्रण होता है। इससे उन्हें एक खास समय पर किसी एक क्षेत्र में असीमित अधिकार मिल जाते हैं। इससे पहले देश में ऐसा नहीं देखा गया था।

भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) अथवा भारतीय रिजर्व बैंक जैसे नियामकों का अपने नियंत्रण वाली संस्थाओं पर विस्तृत और गहरा नियंत्रण है। यह ऐसा नियंत्रण है जो सन 1991 के पहले के भारत में नहीं देखा गया था। किसी अन्य उन्नत अर्थव्यवस्था वाले देश में यह नहीं मौजूद है। ऐसी संस्थाओं के नियमन ने जहां बाजार विकास में मदद की वहीं इस स्तर की ताकत ने निजी क्षेत्र के आत्मविश्वास को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। इससे नवाचार प्रभावित हो रहा है और भारत की सफल अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने की संभावनाओं को भी नुकसान हो रहा है। ऐसी ताकत के साथ बहुत अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है ताकि औपचारिक प्रक्रियाओं के दौरान नियामक सही प्रक्रियाओं का पालन कर सकें। यह बात हमें स्वायत्तता, प्रक्रिया, जवाबदेही और लोगों से जुड़े संगठित सिद्धांतों की ओर ले जाती है। ऐसा सुधारवादी एजेंडा इस तरह के हालात निर्मित करेगा जो लोगों के आर्थिक विकास और बेहतरी के लिए अच्छे होंगे।

लोग: किसी विनियमित क्षेत्र में तकनीकी विशेषज्ञता और विषय की जानकारी को वह वजह माना जाता है जिनके चलते नियामक बनाए जाते हैं। फिलहाल तो लगभग सभी एसआरए में वरिष्ठ स्तर पर सभी लोग पूर्व या सेवारत सरकारी अधिकारी हैं। आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए है क्योंकि नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार का दबदबा है और बाहरी विशेषज्ञों की भागीदारी नाम मात्र की होती है। इन नियुक्तियों का कार्यकाल भी अलग-अलग होता है। विषय विशेषज्ञों के एक विविध समूह का विचार जिसका कार्यकाल की कार्यावधि भी अलग-अलग होती है। विषय विशेषज्ञों के विविध समूह का विचार जिसका कार्यकाल पूर्व अनुमानित और निश्चित हो, तथा जो अनिवार्य तौर पर तकनीकी ढंग से नियमन को लेकर काम करे, जिसमें राजनीतिक विचार विमर्श न के बराबर हो, ऐसा विचार अभी दूर है।

स्वायत्तता: परिचालन की स्वायत्तता यानी सरकारी विभागों से दूरी एसआरए का एक बुनियादी तर्क है। हमें विभिन्न विधायी प्रावधानों को सुसंगत बनाने की आवश्यकता है ताकि सभी एसआरए बिना सरकारी मंजूरी के नियमन कर सकें। इसके लिए स्वायत्तता की जरूरत है। बदले में इसके लिए मानव संसाधन और वित्तीय स्वायत्तता की जरूरत होती है। इन विधायी प्रावधानों के साथ संसाधनों की स्वायत्तता को संतुलन के साथ मिश्रित करने की आवश्यकता होती है ताकि आत्मप्रशंसा तथा अन्य दुरुपयोगों से बचा जा सके।

प्रक्रिया: नियामकों द्वारा तैयार नियम कानून की तरह होते हैं। लोकतांत्रिक समाजों में कानून बनाने की शक्ति निर्वाचित संस्थाओं को होती है जो जनता के प्रति औपचारिक तौर पर जवाबदेह होती हैं। ऐसे में उम्मीद की जाती है कि इस शक्ति को गैर निर्वाचित व्यक्तियों को सौंपते समय इनके उपयोग में सावधानी बरती जाएगी। नियमन निर्माण में एक किस्म से लोकतांत्रिकता और वैधानिकता का अभाव है। यहां कानून लिखने का काम निर्वाचित प्रतिनिधियों से अधिकारियों के हाथ दे दी गई है। इसी तरह लिखित प्रक्रियाओं की आवश्यकता है ताकि यह निर्धारित हो सके कि नियामक के कार्यपालिका संबंधी और न्यायिक कार्यों को किस प्रकार अंजाम दिया जाए।

जवाबदेही: सभी सरकारी एजेंसियां अपने काम और उसके परिणामों के लिए संसद के जरिये जनता के प्रति जवाबदेह होती हैं। यह संवैधानिक लोकतंत्र वाले देशों में एक मानक प्रक्रिया है। अधिकांश भारतीय एसआरए कानूनों में प्राथमिक जवाबदेही संसदीय निगरानी की है जो इन एसआरए के सालाना प्रदर्शन और वित्तीय रिपोर्ट पर खुली चर्चा के माध्यम से तय की जाती है। हमारी संसद में किसी एसआरए को लेकर ऐसी चर्चा कभी नहीं हुई। जवाबदेही के लिए तीन सुधारों की आवश्यकता है: एक सही ढांचे वाला बोर्ड जिसके कामकाज और भूमिका को लेकर स्पष्टता हो, पंचाट में अपील की सुविधा तथा भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा अंकेक्षण की व्यवस्था।

एक दशक पहले एसआरए में सुधार को लेकर वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग ने एक व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश ने की थी। इसमें विभिन्न क्षेत्रों के विषय विशेषज्ञ शामिल थे। आयोग ने देश के सभी एसआरए में सुधार के लिए एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी। अब वक्त आ गया है कि इस रिपोर्ट को बाहर निकाला जाए, इसमें जरूरी सुधार किए जाएं और इसे वर्तमान की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया जाए। इसके पश्चात इसकी अनुशंसाओं पर काम किया जाना चाहिए।


के पी कृष्णन, ( लेखक आईसीपीपी में मानद सीनियर फेलो और पूर्व अफसरशाह हैं )

Source - Business Standard