देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे पर कुछ दिन पहले हुई सर्वदलीय बैठक ने इस बहस को नए सिरे से छेड़ दिया है। बैठक में इस पर विचार करने के लिए एक समिति बनाने की घोषणा जरूर हुई, लेकिन विमर्श और आम सहमति की राह बनती नहीं दिखी। इसे लेकर विपक्ष भी दोफाड़ दिखा। कांग्रेस, सपा, बसपा और डीएमके समेत 16 दलों का बैठक से दूर रहना इस मुद्दे को पूर्णतया खारिज करने जैसा है, जबकि बैठक में शामिल एनडीए के घटक दलों समेत 21 दलों का समर्थन इस विचार को तेज गति प्रदान करने की पहली सफल कोशिश है। सीपीआइ और सीपीएम ने इसके क्रियान्वयन को लेकर चिंताएं जाहिर की हैं, लेकिन वैचारिक रूप से ये एक साथ चुनाव के समर्थन में हैं। देश के किसी भी मुद्दे पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच बहस लोकतंत्र की खूबसूरती है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इतने महत्वपूर्ण विषय पर आहूत किसी बैठक से कुछ दलों का दूरी बना लेना लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना है। ‘पंचायत से पार्लियामेंट तक’ के चुनावों को एक साथ कराए जाने के विचार को किसी पार्टी की पहल के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।


देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो सकते हैं या नहीं, यह पता लगाने के लिए भारत सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। समिति ने 18,626 पृष्ठों की रिपोर्ट में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव दिया है। यह रिपोर्ट इसके 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकायों के चुनावों को भी एक साथ कराने की वकालत करती है। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भारतीय विधि आयोग के समक्ष सरकार के इन विधायी प्रयासों का समर्थन किया था। ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ अवधारणा भारत में संसदीय, राज्य और स्थानीय सहित सभी चुनावों को एक निश्चित अंतराल, आमतौर पर हर पांच साल में आयोजित करने की वकालत करती है। भारतीय राजनीति में एक साथ चुनाव कराने का यह विचार नया नहीं है। इससे पहले 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो चुके हैं। 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने की वजह से पहली बार एक साथ चुनाव होने का चक्र बाधित हुआ था। वहीं चौथी लोकसभा भी समय से पहले भंग कर दी गई थी, जिसकी वजह से 1971 में नए चुनाव हुए। एक साथ चुनाव का विचार पहली बार औपचारिक रूप से भारत निर्वाचन आयोग ने अपनी 1983 की रिपोर्ट में प्रस्तावित किया था। बाद में भारत के विधि आयोग ने भी इसका समर्थन किया।


लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के विचार को अमल में लाना देशहित में है। हालांकि यह चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि विपक्ष की चिंता है कि मौजूदा सरकार अपने प्रभाव और महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों के जरिये लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को प्रभावित करने में कामयाब हो सकती है। ऐसे में स्थानीय मुद्दे गौण हो सकते हैं, लेकिन यह भय व्यर्थ है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला था, लेकिन उसके तुरंत बाद कई विधानसभा चुनावों में उसे पराजय मिली। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में ओडिशा में भाजपा को सात सीटों पर मिली बढ़त और विधानसभा में बीजद को बहुमत मिलना भी यही जाहिर करता है। दरअसल देश और प्रदेशों के अपने-अपने मुद्दे संबंधित चुनावों को प्रभावित करते हैं। इसके अलावा इस बार के लोकसभा चुनाव में लगभग 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। यह राशि किसी दल की नहीं, बल्कि भारत सरकार के कोष में संचित देश के करदाताओं की है। एक साथ चुनाव से रैलियों, रोड शो, लोकलुभावन व्यय समेत बूथ और अन्य प्रबंधकीय खर्चों में कई गुना कमी आएगी। इससे करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल विकास कार्यों में हो पाएगा। बार-बार चुनाव होने से उम्मीदवारों द्वारा वहन किया गया अतिरिक्त खर्च भी देश में काले धन के प्रवाह को गति देता है। एडीआर के अनुसार राजनीतिक दलों के कुल चंदे का लगभग 70-80 प्रतिशत हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आता है। मौजूदा चुनावी संरचना में हर साल देश का कोई न कोई राज्य चुनाव में व्यस्त रहता है। इसके चलते चुनावी आचार संहिता लागू हो जाने से सरकार और मतदाता दोनों के रोजमर्रा के कार्य प्रभावित होते हैं। इस दौरान न तो कोई नई नीतिगत घोषणा हो पाती है, न ही उसका क्रियान्वयन। मंत्रियों समेत प्रशासनिक अधिकारियों की चुनावी प्रक्रिया में व्यस्तता की वजह से विकास और जनकल्याण के कार्य ठप रहते हैं।


हालांकि तमाम अनुशंसाओं के बावजूद एक साथ चुनाव की व्यवस्था करना आसान नहीं है। इस दिशा में एक सवाल यह है कि बहुमत की सरकार यदि अल्पमत में आ जाए तो उस स्थिति में विकल्प क्या होगा? इस स्थिति में नि:संदेह पुनः चुनाव की कवायद प्रचलन में है। एक साथ चुनाव कराने के लिए भंग लोकसभा या विधानसभा को शेष अवधि तक के लिए स्थगित रखना या फिर बहुमत खो चुकी सरकार का सत्ता में बने रहना भी लोकतांत्रिक जनादेश के लिए अपमानजनक होगा। संविधान के अनुच्छेद-356 के उपयोग तथा उसके बाद की दशा भी चिंता का विषय होगी। जहां तक संविधान में बदलाव कर इस नई व्यवस्था को गति देने का विषय है तो इसमें संशोधन के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी, जो वर्तमान परिदृश्य में चुनौतीपूर्ण है। इस क्रम में कई राज्य सरकारों की कुर्बानी पांच वर्ष के कार्यकाल से पहले देनी पड़ सकती है। इसलिए प्रस्तावित सिफारिशों के लिए आम सहमति अनिवार्य है। यह पहल ऐतिहासिक है। इसलिए इसकी दूरगामी चुनौतियों को भी ध्यान में रखना जरूरी होगा।


केसी त्यागी, ( लेखक जदयू के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व सांसद हैं )

Source - Dainik Jagran