हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। हम दोनों मित्र दुविधा में थे कि वहाँँ जाएँँ या न जाएँ। रात में उतनी दूर साइकिल चलाकर भींगते हुए जाना पड़ेगा। रास्ते में गंगा घाट की तरफ अंधेरा भी रहता था। लेकिन कार्यक्रम दुर्लभ था, साल में एक ही बार मनाया जाता था। खाँ साहब इसी में और एक सावन के महीने में झूलन के समय गाते हैं। नब्बे पार उनकी उमर। पता नहीं, अगले साल रहें या नहीं।
मुंगेर उन दिनों कलाओं के मामले में बड़ा जागृत शहर था। वक्ता, उद्घोषक, गायक, लेखक, कवि, चित्रकार सभी क्षेत्रों के लोग यहाँ थे। शहर तो छोटा था, साइकिल चलाकर निकलो तो आधे घंटे में शहर की सीमा पर पहुँच जाओ लेकिन इसी में कितने ही छोटे बड़े हुनरमंद और हुनरबाज रहते थे। ए. के. प्रेम का एनाउंसमेंट सुनने के लिए लोग खास तौर पर प्रोग्राम में जाते। कालिया की ख्याति का तो कहना ही क्या। उसका ‘डान्स’ देखने दूसरे शहर से लोग आते। था तो लड़का मगर जब नर्तकी की वेशभूषा धारण कर स्टेज पर उतरता तो ऐसा लगता कोई अप्सरा आसमान से उतर आई हो। यकीन करना मुश्किल होता कि वह पुरुष है।
स्त्रियाँ जलतीं, पुरुष आहें भरते। कलाकार भी उच्च कोटि का था। वह 'डान्सर' तो फिल्मी गीतों का था लेकिन 'मधुवन में राधिका नाचे रे', 'छम छम बाजे रे पायलिया' जैसे शास्त्रीय गानों पर शास्त्रीय नृत्य भी ऐसी विलक्षण सुंदरता के साथ करता कि सब हैरान रह जाते। छक्कू पंडित के नाटक के चित्रित परदों की दूर दूर तक मांग थी। कवि भी अनेक थे, कवियाठ की तो पूछो ही मत। लेकिन संगीत के क्षेत्र में इस शहर की सक्रियता विशेष रूप से थी। सावन महीने में झूलन के समय शहर में अनाज के आढ़त जैसी कारोबारी जगह ‘गोला' पर भी रातभर शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम चलता था। दिन में अनाज तोलनेवाला दुकानदार भी उसमें रात में बैठकर तोंद सहलाता संगीत सुनता झूमता हुआ वाह वाह करता था।
पंडित चंद्रशेखर खाँ साहब इस शहर के सबसे वयोवृद्ध और सबसे विख्यात-कुख्यात कलाकार थे। राजदरबार में रहे थे और उन्हें खाँ की उपाधि उनके राजा ने ही दी थी। वे खाँ साहब के नाम से ही प्रसिद्ध थे। कद में छटाँक भर के, लेकिन बड़े फुर्तीले और नियम के पक्के। सर्दी गर्मी हो या बरसात, नहा-धोकर अपने गुरु की मजार पर फूल चढ़ाने जरूर जाते। गालियों की अजस्र धारा उनके मुँह से फूटती, इस कारण उनसे कोई सीखने की हिम्मत नहीं करता था। शिष्य की न केवल लगन और निष्ठा की, बल्कि गालियाँ और उनकी छतरी की मार सहने की भी क्षमता की परीक्षा होती। वह क्षमता नए युवकों में कहाँ। लिहाजा खाँ साहब लगभग चेलाविहीन थे।
अगर गायन के क्षेत्र में खाँ साहब प्रसिद्ध थे तो तबलावदन में ‘महाराज जी’ का नाम था। ‘महाराज जी’ यानी पंडित बुलबुल महाराज। बनारस घराने के उच्च कोटि के कलाकार। रहते थे मुंगेर में लेकिन आदर और प्रसिद्धि में किसी अखिल भारतीय कलाकार की बराबरी करते थे। लेकिन खाँ साहब की बदमिजाजी और दूसरों को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति कभी कभी उन जैसे वरिष्ठ कलाकार को भी चपेट में ले लेती। एक प्रोग्राम में महाराज जी उनके साथ संगत कर रहे थे। खाँ साहब ने ध्रुपद शुरू किया और काफी देर तक आलाप ही करते रहे।
दस मिनट निकल गए। बुलबुल महाराज इंतजार कर रहे हैं कि अब आलाप खत्म हो और बंदिश का गायन शुरू हो कि हम तबला बजावें। दर्शक भी इंतजार कर रहे हैं कि अब तबला बजेगा, अब तबला बजेगा। लेकिन खाँ साहब 'रीऽ देऽ नाऽ नोऽम तोऽम किए जा रहे हैं, किए जा रहे हैं। कहाँ सम दिखाना है वह सब भी नहीं दिखा रहे हैं। बुलबुल महाराज समझ गए कि ये उनको अपमानित करना चाह रहे हैं। उन्होंने आलाप में ही अपना स्टार्ट कर दिया -
“धाऽ क्रिधिन ता, धा धिन ता, क्रिधांऽग तननन धान धान धाऽ…।”
खाँ साहब ने देखा कि यह तो चालू हो गया। रुके और पूछा, “ई का बजावत हौ?”
महाराज जी बोले, “हम बजावत हैं।”
“हम का गावत हैं जौ तुम बजावत हौ?”
“ई तो तू जानौ कि का गावत हौ। जब तुम्हीं ना जानत हौ कि का गावत हौ तो हम अपना बजावत हैं। तू का गावत हौ तू जानौ।”
दर्शक खाँ साहब की खुराफात समझ ही रहे थे। ठहाके लगाने लगे - होऽ होऽ होऽऽ… खाँ साहब दुर्योधन की तरह अपमानित करने चले थे पाण्डव को, खुद ही अपमानित हो गए।
खाँ साहब की बदजुबानी और बदमिजाजी के ढेर सारे किस्से थे।
मुंगेर में किला के अंदर दक्षिणी द्वार के पास एक टीले पर एक पीर का प्रसिद्ध मजार है। कहते हैं वह पीर फारस से सूफी संत ख्वाजा मोइन-उद्दीन चिश्ती से मिलने अजमेर आया था और ख्वाजा साहब ने उसे मुंगेर भेज दिया था। पीर ने मुंगेर में हीं रहकर अंतिम साँस ली। उसकी कब्र की जगह अब एक भव्य मकबरा बना दिया गया है लेकिन उन दिनों वहाँ खुली मजार थी।
इस मजार पर हर साल एक संगीत का जलसा होता था। इसका आयोजन मुंगेर के जिला प्रशासन द्वारा किया जाता था। इसमें मुंगेर के प्रमुख गायक-वादक भाग लेते। खाँ साहब वरिष्ठतम होने के कारण इस जलसे के मुख्य व्यक्ति होते। एक तरह से वे इसके आयोजक-जैसे थे। गायकों-कलाकारों में आपसी प्रतिद्वंदिता बहुत होती है लेकिन खाँ साहब से जलने और दूर दूर रहनेवाले, कलाकार भी उस दिन कार्यक्रम में स्वेच्छा से आते।
आनंदी झा, परशुराम शर्मा बुलबुल महाराज, विवेकाजी तबलिया, पप्पू जी गायक आदि आदि। साथ में उनके चेले चपटिए और रुचि लेनेवाली आम पब्लिक भी आती। नए उभरते गायकों को यहाँ गाने का मौका मिलने की हसरत होती। जो यहाँ गा लिया शहर में वह स्थापित कलाकार हो गया, उसे कलाकार मान लिया गया।
उस दिन बूंदाबांदी हो रही थी, हम दुविधा में थे कि जाएँ कि न जाएँ। खाँ साहब जैसे दुर्लभ कलाकार को सुनने का मौका साल में एक दो बार ही मिलता था। अंंततः देर से हमलोग मजार पर पहुँच ही गए। तबला वादन चल रहा था। वहाँ शहर के कई नामी गिरामी व्यक्तित्व मौजूद थे। गुरु गंभीर व्यक्तित्व और आवाज वाले प्रोफेसर शिवचंद्र प्रताप, सबसे नामी सर्जन डॉक्टर एनपी झा, केवल दस रोगी देखनेवाले दूर दूर तक प्रसिद्ध डॉक्टर पीएन झा, एडीशनल डीएम बाजपेयी आदि। माहौल गंभीर था।
धीरे से एक किनारे हमलोग बैठ गए।
ढोलक, नाल मृदंग आदि तमाम आघात वाद्यों में तबला हमेशा सबसे अलग और उत्कृष्ट स्थान रखता है। राग चंद्रकौंस की धुन पर लहरा और ‘धा तिरकिट तिन तागे तुन ना’ वगैरह बोलों के विन्यास। कभी कभी तो लगता कि तबलिए की उंंगलियों में जो जादू होता है, गायक के गले से उसकी तुलना नहीं हो सकती।
तबले के बाद खाँ साहब के चेले गौतम बनर्जी का गायन शुरू हुआ। राग मारू विहाग। यह प्रातः ब्रह्मवेला से पूर्व काल का अत्यंत ही मधुर राग है। आज यह शुरू में ही गाया जा रहा था। लेकिन सावन की मेघाच्छन्न काली रात दस बजे ही मध्यरात्रि के बाद तीसरे पहर का एहसास दे रही थी। शांत गंभीर वातावरण और मारू विहाग के स्वर! मारू विहाग में प्रेम के भाव की अभिव्यक्ति बड़ी मार्मिक होती है। अलग ही समा बंध रहा था। गौतम बनर्जी के बारे में हम आश्चर्य करते थे कि इसने खाँ साहब के बिगड़ैल स्वभाव को साध कैसे लिया। शायद शहर के सबसे प्रतिष्ठित डॉक्टर सुब्रतो बनर्जी का बेटा होने के कारण खाँ साहब उससे दुर्व्यवहार नहीं करते होंगे।
उसपर से वह आईआईटी से इंजीनियरिंग भी कर रहा था। लेकिन पता नहीं संगीत के लिए कहाँ से समय निकाल लेता था। निस्संदेह खाँ साहेब की उच्च कोटि की कला की झलक उनके शिष्य की गायकी में भी मिल रही थी। बाद में तो गौतम बनर्जी आकाशवाणी के संगीत के अखिल भारतीय कार्यक्रम में गाने लगे थे। खाँ साहब बीच-बीच में सिर हिलाकर वाह करके उसकी हौसला अफजाई और तारीफ कर रहे थे। गौतम की गायकी से लग रहा था खाँ साहब कैसे कलावंत होंगे। जब चेला ऐसा है तो गुरु के क्या कहने। हालाँकि मैंने जब भी खाँ साहब को सुना था, परेशान हुआ था, क्योंकि वे गाते गाते बीच में बोलते बहुत थे। एक तान ली नहीं कि सिर हिलाकर सबसे जैसे पुष्टि करवाते कि देखो क्या चीज गाई है। चेला इन दुर्गुणों से दूर था। लिहाजा मुझे उसका गाना ज्यादा अच्छा लग रहा था।
लेकिन इस कलाकारी के बीच एक और चीज धीरे धीरे सर उठा रही थी। खाँ साहब गाने के बीच सिर्फ अपने चेले के लिए वाहवाही ही नहीं कर रहे थे, वहाँ उपस्थित एक दूसरे कलाकार परशुराम जी को लक्ष्य करके व्यंग्य भी कर रहे थे। उनका व्यंग्य धीरे धीरे इशारों से आगे बढ़कर खुली टिप्पणियों के क्षेत्र में प्रवेश कर गया था - देखो, तुमसे होगा ऐसा? है तुम्हारी ऐसी औकात? परशुराम जी शहर के नए उभरते कलाकार थे। खाँ साहब के विपरीत वे नए जमाने की मांग पर ठुमरी, गीत, गजल, लोकगीत वगैरह हल्की फुलकी चीजें खूब गाते थे। इस कारण उनको प्रोग्राम भी काफी मिलते थे।
खाँ साहब इससे कुपित थे। परशुराम जी बनारस के किन्हीं अमरनाथ-पशुपतिनाथ जी को अपना गुरु बताते थे। लेकिन वे बनारस जाकर क्या सीखते, उन्होंने खुद ही सुन-सुनकर पढ़कर स्वाध्याय से शास्त्रीय संगीत गाना सीखा था। उनके गाने में खाँ साहब के घरानेदार संगीत की ऊंँचाई तो नहीं मिल सकती थी लेकिन उन्होंने अभ्यास अच्छा किया था, और अच्छा गा लेते थे। गायकों-वादकों में पेशेवर ईर्ष्या बहुत होती है। परशुराम जी ने मुंगेर में खाँ साहब के रहते किसी और का शिष्यत्व ग्रहण किया यही खाँ साहब के अहंकार को बहुत चोट पहुँचाती थी। यह अमरनाथ-पशुपतिनाथ कौन है? परशुराम जी से उनके चिढ़ने की इतनी ही नहीं, और भी वजहें थीं। परशुराम जी सामने पड़ने पर उनके पाँव भी नहीं छूते थे, जैसा कि अन्य जूनियर कलाकार करते थे।
परशुराम पिछड़ी जाति के थे। शास्त्रीय संगीत की विधा में कोई पिछड़ी जाति का गवैया बन जाए यह उनके उग्र ब्राह्मण-दर्प को खटखती थी। उनकी नजर में ‘नीची’ जाति वाला लोकगीत कजरी चैती वगैरह गा ले, उतना तक ठीक है। गौतम बनर्जी अगर उनका चेला बन सका था तो उसके पीछे उसका केवल बड़े डॉक्टर का बेटा होना ही नहीं, उसका ब्राह्मण कुलोत्पन्न होना भी था। संगीत की धारा के साथ साथ जाति चेतना की अंतर्धारा भी बह रही थी।
एक आदमी तेजी से सीढ़ियों से नीचे उतरा और अंधेरे में खो गया। जिस तरह से वह गाने के बीच में नीचे उतरा था मुझे कुछ अजीब लगा लेकिन मैंने इसे नजरंदाज कर दिया। हो सकता है अचानक कोई काम आ गया हो।
गौतम का गाना विलम्बित से निकलकर मध्य लय और फिर द्रुत लय में पहुँच गया था। उसकी तानें तेज और जटिल हो गई थीं। उसके साथ खाँ साहब के परशुरामजी पर तानें भी उद्धत और अशिष्ट हो गए थे। परशुराम जी गाने के दौरान एक बार किसी से बात करने लगे। यह कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन गायकों के बीच ऐसा व्यवहार अशिष्टता समझी जाती है। खाँ साहब ने टोक दिया, “कैसा आदमी है, कौन बुलाया इसको?” परशुराम जो ने भी तत्काल जवाब दे दिया, “यह सार्वजनिक सभा है। जैसे सब आए हैं वैसे ही मैं आया हूँ। किसी को अलग से नहीं बुलाया गया है।” परशुराम जी अन्यथा चुप ही रहे थे लेकिन महफिल में खाँ साहब को जवाब दे देना ही बड़ी हिमाकत थी। खाँं साहब का पारा चढ़ता ही चला गया। इसकी मजाल कि महफिल में मेरे सामने गाएगा! मुंगेर में खाँ साहब के रहते दूसरा कौन पैदा हो गया!
इधर संभ्रांत परिष्कृत लोगों से युक्त श्रोता समुदाय खाँ साहब की कटूक्तियों की उपेक्षा करके संगीत का आनंद ले रहा थे। मारू विहाग में गौतम का मंद्र स्वर वातावरण में जादू घोल रहा था। तराने में उच्च, क्षिप्र स्वरों में हहराते गर्जन के साथ गौतम बनर्जी का गायन समाप्त हुआ। लोगों ने प्रशंसा में तालियाँ बजाईं।
तभी कुछ हुआ। तालियों का शोर एकाएक कोलाहल में बदल गया। खाँ साहब के छाते की ‘बगुली’ हवा में लहराई। ‘हो, हो’, ‘मारो’, ‘छोड़ो’ की आवाजें गूंजने लगीं। लोग खड़े हो गए। मैं किनारे होने की वजह से कुछ समझ नहीं पाया। मेरा दोस्त भीड़ में अंदर घुस गया था। जो आदमी सीढ़ियों से भागता नीचे गया था वह वापस लौटा।
जल्दी ही माइक से ‘शांत हो जाइये’, ‘शांत हो जाइये’ की आवाजें गूंजने लगीं। ये प्रोफेसर शिवचंंद्र प्रताप थे। वे शहर के सर्वस्वीकृत कार्यक्रम संचालक थे। वे कार्यक्रम में होते तो माइक किसी और के हाथ में होने का सवाल ही नहीं था।
मेरा दोस्त अंदर से प्रकट हुआ। उसका यादवी रक्त उबाल खा रहा था।
“आज उठाके पटकिए देता साले बुढ़ऊ को।”
“बात क्या है? क्या हुआ?”
अरे साला बहुत बक बक कर रहा था।
“हुआ क्या?”
वह आवेश में था। मैंने इंतजार करना उचित समझा। कई जाने पहचाने चेहरे अरुण शर्मा, बहादुर मिश्रा, बिजय मिस्त्री, नटवर ओझा, प्रकाश पासवान, मनोहर गुप्ता आदि वहाँं मौजूद थे। मुंगेर में अगड़ी जाति के साथ पिछडी जाति के गायकों-वादकों की पीढ़ी भी उभर रही थी। नई पीढ़ी में जाति का दुराग्रह नहीं था।
पता चला कि गौतम का गाना समाप्त होने के बाद खाँ साहब जूता उठाकर परशुराम शर्मा पर दौड़ पड़े थे - “मेरे सामने गाएगा रे परसुरम्मा! लोहार! मारूंगा साले जूता से ऐसा कि …” लोग भौंचक्के रह गए। खाँ साहब इस हद तक चले जाएंगे, किसी ने सोचा न था। लेकिन दूसरे ही क्षण लोग हरकत में आए। खाँ साहब ने अपनी टिप्पणी से बेवजह पिछड़ी जाति के लोगों के स्वाभिमान पर चोट कर दी थी। वे खाँ साहब को जवाब देने के लिए उद्यत हो गए। जिस छाते से खाँ साहब अपने चेले चेलियों को पीटते रहते थे, वह छाता खुद उन्हीं को पीटने के लिए उठा लिया गया। खाँ साहब ने किसी को ‘बड़ी संगत’ आदमी मंगाने के लिए भेजा था। (वही आदमी जो बीच गाने में सीढ़ियों से तेज़ी से उतरता अंधेरे में गायब हुआ था)। बड़ी संगत के महंत जी दबंग थे।
उनके चेलों में पहलवान और लाठी-तमंचे वाले लोग भी थे। लेकिन जब महंत जी ने वहाँ कलेक्टर के साथ साथ यादवों, कुर्मियों की उपस्थिति की बात सुनी तो सटक गए। खाँ साहब को अपेक्षित सहायता नहीं मिल पाई। उन्होंने बाहर से गुंडे बुलाकर परशुराम जी को पिटवाने का उपाय कर रखा था, उल्टे उन्हीं के पिट जाने की नौबत आ गई। लोगों ने बीच-बचाव नहीं किया होता तो आज उनकी दुबली-पतली काया का जीर्णोद्धार हो ही जाता।
……
माइक पर प्रोफेसर शिवचंद्र प्रताप की धारदार और जायकेदार टिप्पणियों ने भी वीर रस के माहौल में शांत रस घोलने का काम किया। बड़ा कलाकार साइज में छोटा हो तो चल जाएगा, लेकिन स्वभाव में भी छोटा हो, यह अच्छा नहीं लगता। कला तो संस्कार और परिष्कार देती है, अत्याचार नहीं सिखाती। सम्मान पाने वाले को सम्मान देना सीखना चाहिए, नहीं तो घमासान हो जाता है। हैरानी हुई आज का व्यवहार देखकर।
महफ़िल का रंग तो भंग हो ही चुका था। अब क्या गाना बजाना होता। सबका मूड खराब था। सभा वहीं विसर्जित हो गई। हमने अपनी साइकिल उठा ली।
लेकिन शिवचंद्र प्रताप की उस बात पर रास्ते भर हँसी आती रही - "मारू विहाग प्रेम का राग है लेकिन मुझे नहीं पता था कि इसके गाने से मार हो जाता है।"
- लेखक परिचय
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डा. वरुण कुमार पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार |
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