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इस बार बढ़ते तापमान और जंगल में आग के चलते उत्तराखंड की नदियां उफान पर हैं। अमूमन ये नदियां मानसून में उफनती हैं, लेकिन इनमें पहली बार मई-जून माह में उफान देखा गया है। बदरीनाथ धाम के आगे अल्कापुरी हिमखंड से निकलने वाली अलकनंदा नदी में पांच दिन में दो से तीन फुट पानी बढ़ गया। उत्तरकाशी में भागीरथी नदी का जलस्तर असमय 150 घनमीटर प्रति सेकंड बढ़ता हुआ दर्ज किया गया है। इसी तरह कुमांऊ मंडल के कालापानी हिमखंड से निकली काली नदी, केदारनाथ से निकली मंदाकिनी में भी पानी बढ़ा है। सभी नदियों का पानी मटमैला दिखाई दिया। मौसम विज्ञान केंद्र का कहना है कि इस बार लंबे समय तक निरंतर गर्मी बनी रही, इसलिए ये हालात उत्पन्न हुए हैं। इन संकेतों से स्पष्ट है कि इस बार की गर्मी और जंगल की आग ने हिमालय के इन चारों हिमखंडों की सेहत बिगाड़ दी है।
इस वर्ष मई के अंतिम दिनों में उत्तराखंड के पांच जिलों के जंगलों में भीषण आग लगी थी, जिसके बुझने के बाद हिमालय के हिमखंडों पर अनेक प्रकार के दुष्परिणाम देखने में आए हैं। वाडिया भू-विज्ञान संस्थान की ताजा रपट के मुताबिक आग से हिमखंडों पर कार्बन की मात्रा सामान्य से ढाई गुना बढ़कर 1899 नैनोग्राम ज्यादा हो गई है। औसत से कम हिमपात और अब आग के कारण वायु प्रदूषण से हिमखंड काले कार्बन की चपेट में आ गए हैं। कार्बन के कण गरम होते हैं, जो हिमखंड की ऊपरी परत पर चिपक कर उसके पिघलने की गति बढ़ा देते हैं। ये सूर्य की किरणों को बहुत तेजी से अवशोषित करते हैं। नतीजतन, हिमखंड की ऊपरी परत गरम होकर पिघलने लगती है। इस बार उत्तराखंड के सात जिलों में बाईस दिन आग लगी रही। इससे 1450 हेक्टेयर जंगल साफ हो गया। ‘यूसेफ’ की रपट के मुताबिक बीते 37 वर्षों में जंगल की आग और कार्बन कणों के चलते हिमालयी बर्फ से ढंके रहने वाले क्षेत्र 26 वर्ग किमी घट चुके हैं। ‘नंदादेवी बायोस्फियर रिर्जव’ के ऋषिगंगा जलभराव क्षेत्र का कुल 243 वर्ग किमी क्षेत्र बर्फ से ढंका रहता था, जो अब 215 वर्ग किमी रह गया है। उत्तराखंड राज्य वन विभाग के आंकड़ों के अनुसार बीस वर्ष में 44554 हेक्टेयर वन आग की भेंट चढ़ चुके हैं। तापमान में अगर एक डिग्री का मामूली बदलाव भी होता है तो हिमखंडों के साथ बर्फ के आवरण वाले क्षेत्र में बड़ी कमी दर्ज की जाती है।
इन्हीं कारणों और वैश्विक बढ़ते तापमान के चलते हिमखंडों वाली झीलों पर खतरा बढ़ रहा है। बढ़ती गर्मी से ये झीलें लगातार पिघल रही हैं। कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल की 28043 हिमखंड झीलों में से 188 झीलें कभी भी तबाही का कारण बन सकती हैं। ऐसा हुआ तो तीन करोड़ की आबादी पर संकट गहरा जाएगा। गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग और हिमालय पर्यावरण विशेषज्ञ दलों द्वारा एक वर्ष तक किए अध्ययन में ये तथ्य सामने आए हैं। वैश्विक तापमान बढ़ने के कारण 1.5 डिग्री पारा बढ़ने से हिमालय क्षेत्र में हिमखंड पिघलने की रफ्तार 1.5 फीसद तक बढ़ जाती है। भूकम्प या अन्य प्राकृतिक आपदा में हिमखंड झीलों के फटने से बड़ी मात्रा में पानी का बहाव बढ़ जाता है। ऐसी गंभीर अवस्था वाली 188 झीलें आपदा प्रबंधन द्वारा चिह्नित की गई हैं। अगर हिमालयी राज्यों में सात रिक्टर का भूकम्प आता है, तो अत्यधिक संवेदनशील 188 हिमखंड की झीलें टाइम बम की तरह फूट पड़ेंगी। पानी के बेहताशा प्रवाह से बड़ी आपदा का सामना करना पड़ सकता है।
हिमालय के बर्फ से आच्छादित हिमखंडों से ही ज्यादातर नदियां निकलकर समतल धरती पर बहकर जीवनदायिनी बनी हुई हैं। इसलिए यहां की बर्फ का निरंतर पिघलना नदियों के प्रवाह के लिए भविष्य में घातक सिद्ध हो सकता है। इस समय जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया के महाद्वीप और समुद्र भी बड़े बदलावों से गुजर रहे हैं। इसलिए हिमखंडों का पिघलना बड़े खतरे का संकेत है। इससे तत्काल नदियों और समुद्र का जलस्तर तो बढ़ेगा ही, इससे उत्तरी गोलार्ध पर भी असर पड़ेगा, जहां बड़ी आबादी निवास करती है। ये पिघलती बर्फ की चादरें वायुमंडलीय परिसंचरण को भी बदल देती हैं, जो भूमध्य रेखा और उससे आगे अमेजन और अफ्रीका तट के बदलते मौसम को प्रभावित कर सकती है।
विश्व मौसम संगठन (डब्लूएमओ) के अनुसार बीते वर्ष और पिछले दशक में धरती पर तेजी से गर्मी बढ़ी है। अमेरिका की पर्यावरण संस्था वैश्विक विटनेस और कोलंबिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया है कि तेल और गैस के अधिकतम मात्रा में उत्पादन से ये हालात बने हैं। अगर इन ईंधनों के उत्सर्जन का यही हाल रहा तो 2050 तक गर्मी अपने चरम पर होगी। इस गर्मी से जीव-जगत की क्या स्थिति होगी, इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। इसीलिए कहा जा रहा है कि इस बार धरती पर प्रलय बाढ़ से नहीं, आसमान से बरसने वाली आग से आएगी। इसके संकेत प्रकृति लगातार दे रही है। इस संकट से निपटने के उपायों को तलाशने के लिए 198 देश जलवायु सम्मेलन करते हैं। इन सम्मेलनों का एक ही प्रमुख लक्ष्य रहा है कि दुनिया उस रास्ते पर लौटे, जिससे बढ़ते वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक स्थिर रखा जा सके। मगर अब जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे स्पष्ट है कि कुछ ही सालों के भीतर गर्मी तापमान की इस सीमा का उल्लंघन कर लेगी। इस बार तीन सप्ताह लगातार गर्मी का तापमान 40 से 55 डिग्री तक बना रहा है।
बदलते हालात में हमें जिंदा रहना है, तो जिंदगी जीने की शैली को भी बदलना होगा। हर हाल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी। कार्बन उत्सर्जन में 43 फीसद कमी लानी होगी। अगर कार्बन उत्सर्जन की दर नहीं घटी और तापमान में 1.5 डिग्री से ऊपर वृद्धि हो जाती है तो असमय अकाल, सूखा, बाढ़ और जंगल में आग की घटनाओं का सामना निरंतर करते रहना पड़ेगा। बढ़ते तापमान का असर केवल धरती पर नहीं होगा, समुद्र का तापमान भी बढ़ेगा और कई शहरों के अस्तित्व के लिए समुद्र संकट बन जाएगा। इसी सिलसिले में जलवायु परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्र की अंतर-सरकारी समिति की ताजा रपट के अनुसार सभी देश अगर जलवायु बदलाव के सिलसिले में हुई क्योतो संधि का पालन करते हैं, तब भी वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 2010 के स्तर की तुलना में 2030 तक 10.6 फीसद की वृद्धि होगी। नतीजतन, तापमान भी 1.5 से ऊपर जाने की आशंका बढ़ गई है। दुनिया में बढ़ती कारें भी गर्मी बढ़ाने का सबसे बड़ा कारण बन रही हैं। 2024 में वैश्विक स्तर पर कारों की संख्या 1.475 अरब आंकी जा रही है। मसलन, प्रति 5.5 व्यक्ति पर एक कार है, जो आजकल गांव-गांव प्रदूषण फैलाने का काम कर रही हैं। इन पर भी नियंत्रण जरूरी है।
प्रमोद भार्गव (Source- Jansatta)
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