“आरोग्यं परमं भाग्यं, स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम्।”  

(अर्थात: उत्तम स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा भाग्य है और वही सभी कार्यों की सिद्धि का माध्यम है।)


आज की युवा पीढ़ी एक ओर आत्मनिर्भर भारत की दिशा में अग्रसर है, तो वहीं दूसरी ओर वह अनजाने में अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से समझौता कर रही है। आर्थिक सफलता की दौड़ में वह दिन-रात डिजिटल डिवाइस से जुड़ा रहता है—कभी काम के बहाने, कभी सोशल मीडिया की लत में, तो कभी "FOMO" (Fear of Missing Out) के कारण। यह लगातार स्क्रीन से जुड़ा रहना, युवाओं को धीमे-धीमे बीमारियों के गर्त में ढकेल रहा है।


“जहाँ तन स्वस्थ होता है, वहाँ मन भी प्रफुल्लित होता है।”

मगर आज स्थिति इसके ठीक विपरीत हो रही है। स्क्रीन के अत्यधिक उपयोग से युवाओं में आंखों की रोशनी कम होना, कमर-दर्द, मोटापा, अनिद्रा और थकान जैसी समस्याएं आम हो चुकी हैं। काम के नाम पर घंटों एक ही स्थान पर बैठे रहना, अनियमित जीवनशैली और पर्याप्त शारीरिक गतिविधि की कमी से उनका शारीरिक स्वास्थ्य कमज़ोर होता जा रहा है। इसके साथ-साथ, मानसिक समस्याएं भी बढ़ रही हैं।


डिजिटल स्पेस में हर समय ‘एक्टिव’ रहने का दबाव, खुद को दूसरों से तुलना करने की प्रवृत्ति, ‘लाइक्स’ और ‘फॉलोअर्स’ के पीछे भागने की होड़ युवाओं को मानसिक रूप से अस्थिर बना रही है। कई शोध बताते हैं कि युवाओं में चिंता, अवसाद और अकेलेपन की भावना में वृद्धि हो रही है। ये मानसिक स्थितियाँ धीरे-धीरे गंभीर बीमारियों में तब्दील हो सकती हैं।


“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।” 


यह कहावत आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गई है। डिजिटल दुनिया में ‘ऑनलाइन’ रहना अनिवार्यता बन चुका है, लेकिन इसी कारण ‘ऑफलाइन’ जीवन का संतुलन बिगड़ रहा है। नींद की गुणवत्ता गिरती जा रही है, युवाओं की सोच में नकारात्मकता बढ़ रही है और उनके वास्तविक सामाजिक संबंध कमजोर पड़ते जा रहे हैं।


डिजिटल हेल्थ बनाम डिजिटल डिस्टर्बेंस  


वास्तव में, डिजिटल तकनीक का उद्देश्य जीवन को सरल और सहज बनाना था, लेकिन इसकी अत्यधिक निर्भरता इसे बोझ बना रही है। वर्चुअल मीटिंग, ऑनलाइन क्लासेस, डिजिटल वर्कस्पेस—इन सबने भौतिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर डाला है। मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अभी भी हमारे समाज में खुलकर बात नहीं होती, जिससे युवा अपनी समस्याओं को व्यक्त नहीं कर पाते।


क्या है समाधान?


समाधान पूरी तरह तकनीक को नकारना नहीं है, बल्कि उसका संतुलित उपयोग सीखना है।  

- डिजिटल डिटॉक्स: हर सप्ताह कम से कम एक दिन या कुछ घंटे पूरी तरह स्क्रीन से दूर रहना।  

- शारीरिक गतिविधियाँ: योग, व्यायाम, साइकलिंग या पैदल चलना जैसी आदतें अपनाना।  

- मानसिक सशक्तिकरण: ध्यान, मेडिटेशन, संगीत, पढ़ाई या लेखन जैसे रचनात्मक कार्य करना।  

- सोशल कनेक्शन: वर्चुअल की बजाय रियल कनेक्शन को महत्व देना, परिवार व दोस्तों के साथ समय बिताना।  

- प्रोफेशनल मदद: मानसिक परेशानी होने पर काउंसलिंग लेना, जिसे अब समाज में सामान्य माना जाना चाहिए।


"स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है"—महात्मा गांधी का यह कथन हमें याद दिलाता है कि आर्थिक सशक्तिकरण तभी सार्थक है, जब व्यक्ति स्वयं अंदर से स्वस्थ हो। युवा वर्ग यदि इस बात को समझे कि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य में निवेश ही उसकी सबसे बड़ी पूंजी है, तो वह लंबे समय तक न केवल व्यक्तिगत रूप से, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी योगदान दे सकता है।


अंततः, आवश्यकता है इस संतुलन की।  

“समय के साथ चलो, पर स्वयं को पीछे मत छोड़ो।”

डिजिटल युग का लाभ लीजिए, लेकिन अपने तन और मन की कीमत पर नहीं। युवा ही देश का भविष्य हैं—उनका स्वस्थ, संतुलित और सशक्त होना हम सबकी प्राथमिकता होनी चाहिए।


लेखक - अमन जायसवाल ( मीडिया अध्येयता)